मध्यप्रदेश में वन प्रबंधन का इतिहास

घनश्याम सक्सेना

वन विभाग की स्थापना के समय वनसंरक्षक पदनाम जानबूझकर दिया गया था क्योंकि इसमें इस विभाग का बुनियादी कर्तव्य परिलक्षित था” सन् 1860 में कर्नल जी.एफ. पियर्सन (1858-1867) ने तत्कालीन सेंट्रल प्रॉविन्सेज (मध्यप्रदेश) में वन विभाग के गठन का जो मूल उद्देश्य बताया था वह 150 साल बाद भी अटल है। वैज्ञानिक वन प्रबंध के इस डेढ़ सौवें साल में हम आत्मपरीक्षण करें कि इस मूल उद्देश्य के निर्वहन में हम कितने सफल हुये हैं?

वन विभाग की स्थापना की कहानी इन्हीं कर्नल पियर्सन की जुबानी सुनें:

“सन् 1858 में जबकि गदर के अवशेष अंदरूनी इलाकों में छिपे थे तब में सिवनी में मिलिट्री पुलिस के एक दस्ते का कमांडर था। जंगलों में छिपे इन विद्रोहियों को ढूंढ़ते समय मेरा परिचय इस विशाल और बहुमूल्य वनसंपदा से हुआ। जंगलों की अंधाधुन्द कटाई हो रही थी क्योंकि महज एक परवाने के बल पर कोई भी देशी-विदेशी ठेकेदार मनचाही कटाई कर सकता था। हर गोंड के पास कुल्हाड़ी थी। जंगलों में यहां-वहां तमाम लट्ठे कटे पड़े थे। आग लग जाती थी। मैंने सरकार को भेजी जाने वाली अपनी रिपोटों में यह स्थिति स्पष्ट करके सरकार का ध्यान बार-बार आकर्षित किया और इस तरह एक ऐसे विभाग की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ जिसका काम वर्षों का संरक्षण होगा। अगस्त 1860 में मुझे सागर और नर्मदा क्षेत्रों का वनसंरक्षक नियुक्त किया गया। मुझे दो सहायक दिये गये। वनसंरक्षक पदनाम जानबूझकर दिया गया था क्योंकि इसमें इस विभाग का बुनियादी कर्तव्य परिलक्षित था।”
तत्कालीन मध्यप्रदेश संभवतः भारत का पहला प्रदेश था जहां वन विभाग की स्थापना करके वनों को सुनियोजित ढंग से वैज्ञानिक प्रबंध के तहत लाया गया। मध्यप्रदेश वन विभाग ने 1961-62 में अपनी स्थापना का शताब्दी समारोह मनाया। तत्कालीन केन्द्रीय कृषि (वन) मंत्री डॉ पंजाबराव देशमुख ने विभाग द्वारा प्रकाशित स्मारिका के लिये 18 नवंबर 1961 को भेजे अपने संदेश में लिखा कि “भारत के विभिन्न भागों में थोड़ा आगे पीछे वन विभागों का गठन किया गया, लेकिन औसत वर्ष 1861 है।”

हाइलेंड्स ऑफ सेंट्रल इंडिया नामक पुस्तक के लेखक केप्टेन जे. फारसायथ ने लिखा है :

“सन् 1861 में (सागर और नर्मदा तथा अन्य क्षेत्रों को मिलाकर) सेंट्रल प्रॉविन्सेज (सी.पी.) का गठन किया गया और सर रिचार्ड टेम्पिल को चीफ कमिश्नर बनाया गया। उन्होंने वनविभाग को संगठित करने में रुचि ली। आदेशानुसार मैं पचमढ़ी के लिये रवाना हुआ जहां गोंड और कोरकू इलाके के बीचों बीच एक स्थायी फारेस्ट लॉज बनाना था। हमारी रुचि महादेव गिरी श्रृंखला के वनों को बचाना था और इन आदिवासियों के हितों को स्वयं के हितों से जोड़ना था 11 जनवरी 1862 को मैंने जबलपुर के छोटे से स्टेशन को अलविदा कहा। 25 जनवरी को नरसिंहपुर के पास से मुख्य सड़क छोड़कर पहाड़ियों में प्रवेश किया।” जे. फारसायथ ने यह नहीं लिखा है कि वे पचमढ़ी कौन सी तारीख को पहुंचे। वे वहाँ एक छोटा-सा लॉज बनाना चाहते थे। साल की लकड़ी थी। लेकिन ईंटों और चूने की समस्या थी। उन्हें ऐसा लगा कि कोरकू लोग वहां कोई इमारत खड़ी करने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन फारसायथ ने वहां के कोरकू मुखिया को पटाया। उन्होंने कोरकुओं को तमाखु के साथ चूना खाते देखकर चूने का पता लगाया, जो निर्माण कार्य के लिये जरूरी था। उन्होंने गोंड और कोरकुओं को ईंटें बनाने के काम में लगाया और एक लॉज बनाने का काम शुरू हुआ जो मार्च के अंत तक काफी बन चुका था। 28 मार्च को सिवनी, छिदंवाडा और बैतूल के लिये रवाना हुये तथा 28 मई को बोरी के रास्तें पुनः पचमढ़ी के लिये प्रस्थान करके अगले दिन रोरीघाट से वहां पहुंचे। “….
बहुत मेहनत के बाद हमने समय रहते इस लॉज पर छप्पर छा दिया, इसके दरवाजे पर एक बायसन का सिर लगा दिया और इसे बायसन लॉज का नाम दिया। तब से वन विभाग का मुख्यालय इसी लॉज में रहा।” जे. फारसायथ का यह उद्धरण म.प्र. वन विभाग द्वारा 1959 में प्रकाशित स्मारिका से दिया जा रहा है, जो पचमढ़ी में सेंट्रल बोर्ड ऑफ फारेस्ट्री की मीटिंग के समय प्रकाशित की गई थी।
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